Description
यह पुस्तक वैदिक राष्ट्र की अवधारणा की सच्ची प्रस्तुति
है। राजा कैसा हो? प्रजा केसी हो? इसके उत्तर में वेद-वचन है कि ‘वयम् राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः’ (अर्थात हम सभी राष्ट्र के बारे में जागरूक रहें) परिवार में भाई भाई मिलकर रहें। समाज में आर्य बनकर रहें। परस्पर मानसिक सामनस्य में रहें। ‘अहं भूमि अददामार्याय’ (वेद वचन है कि भूमि दस्यु-विहीन रहें) ‘राष्ट्रं मे दाः (हमें सुराज चाहिए) जहाँ भ्रष्टाचार, विद्वेश लोभादिक न रहें। ‘नहि मानुषात् श्रेष्ठतरो हि किञ्चित्’ (पंचम वेद का यह वचन मनुष्य की महिमा विधाता के समतुल्य मानता है) एवं राष्ट्र की आधार नारियाँ सुभग रहें, कृषि और वाणिज्य फले फूले। वाणी मधुमय, शरीर पत्थर का और सबके मन-चित्त समान हों। प्रभु का दिव्य प्रकाश बुद्धि में होता रहे जिससे काम-क्रोध-लोभ इन विविध नरकद्वारों से होकर हम न गुजरें। मृत्यु से छुटकर अमृत से जुड़ाव हो। सम्पूर्ण नीड़ की भांति हो जाय। जिससे हम भारत हो जाएँ अत्यथा भारत्व से भरपूर रहेंगे।