Description
विश्व साहित्य के क्षेत्र में वैदिक साहित्य का शिरोमणि होना सर्वस्वी कृत है। भारतीयों ने ही नहीं, पाश्चात्य विद्वानों ने भी अपने अदम्य उत्साह एवं अथक अध्यवसाय से वैदिक साहित्य के मर्म को समझने-समझाने का भरसक प्रयास किया है और मेरा तो यह विचार है कि ये पाश्चात्य विद्वान् कुछ-एक न्यूनताओं को छोड़कर अपने प्रयास में सफल भी हुए हैं। रही भार तीयों की बात, प्राचीन सायण प्रभृति वेदों के अनुशीलनकर्ताओं को छोड़कर वैदिक वाङ्मय के भारतीय अध्येताओं में से बहुतों ने अपने पल्लवग्राही पाण्डित्य का ही परिचय दिया है। आलोचनात्मक अध्ययन की दृष्टि से भी, जिसकी कि आज भारतीय साहित्य में बाढ़ आ रही है, मैं यह निःसङ्कोच कह सकता हूँ कि भारतीयों में अभी उस लगन एवं अनुसन्धित्सा का प्रायः अभाव है जो पाश्चात्य समीक्षकों में देखने को मिलती है। जिन बेचारे पाश्चात्यों को न भारतवर्ष में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और न भारतीय धर्म एवं दर्शन के व्यवहार का अवसर मिला, उनके द्वारा किया, गया वैदिक-साहित्यक अनुशीलन निश्चय ही श्लाघनीय है। भारतवर्ष में इधर वैदिक साहित्य ही नहीं, अपितु समग्र संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में आलोचना कार्य दिनों-दिन वृद्धि को प्राप्त कर रहा है जो निःसन्देह उस क्षति की पूर्ति कर रहा है जो संस्कृत साहित्य के प्राचीन भाष्यकारों एवं टोकाकारों में वर्तमान थी । जहाँ तक प्रस्तुत पुस्तक की बात है, कई वर्षों तक एम० ए० के छात्रों को वेदसम्बन्धी पत्र पढ़ाने के परिणाम स्वरूप प्रस्फुटित ज्ञान-प्रन्थियो हो इसके कृतित्व के मूल में निहित हैं।